Friday, August 14, 2015

मेळा-खौळा अर लोक थाती थैं बिसरदु समाज
दिने”ा ध्यानी
हमरा लोक की थाती भौत वि”ाद अर विस्तृत छ। लोक गीत से ल्हेकि लोक कथाओं अर लोकोक्तियों को अपणु संसार छ। पैल्या जमन म घर गौं म यों समेत सब्बि विधा जो बि लोक म विद्यमान छाया, वों थैं बुन बच्याण अर छ~वीं बत्थों का माध्यम से एक पीढ़ि बिटे हैंकि पीढि तक सराणा काम हम्हर पुरण्यों न बाखूबि कै। यनु बुले जा कि हमरि लोक विधाओं को सम्प्रे’ाण का माध्यम से संज्वैकि रखे गै छौ त अतिसयोक्ति नि होलि। वै जमन म यों बिधाओं थैं पांडुलिपियों को रूपम य त संगzह नि करे गे अर अगर कैन कैरि बि होलु त भौत कम। हम्हरा समाज अर पारिवारिक पृ’ठ भूमि जन्नि-जन्नि बदलेणीं छन तन्नि योंं बिधाओं परैं संकट को बादळ मंडराणा छन। 
असल म पैल्या जमन म हम्हरा घर गौं म ददि, दाजी, बूबु अर बुढ~या लोग कथा कहानि सुणौंदा छाया। वौं कथा कहान्यों अर लोक गाथाओं थैं सूणि कि हम याद रखदा छाया अर औंण वळि पीढि थैं सुणैकि वों कु सम्प्रे’ाण अफ~वीं ह~वै जांदु छौ। पण अमणि पारिवारिक परिवे”ा बदलि गे। एक त पहाडौं बिटै पलायन होंण से पहाड़ से भैर रैंण वळा लोग अपणि लोक की थाति से कटै गैंन। एकल परिवारों को जो चलण हमुन अपनै वां से ददि दादा त पहाड़ म रैंगिन अर नाति नतिणां सैर वळ ह~वैगैंन यां से कथा अर कहान्यों सुणण अर सुणौण रिवाज खतम सि ह~वै गे। दुसरा कारण छन गौं म जो हम्हरा परिवार छैं बि छन वों कि जीवन चर्या यन्नि ह~वै गे कि टेलीविजन अर मोबाईल अर इण्टरनेट औंण से कथा कहान्यों थैं सुणण वळा नि रैगिन। यां से विगत दस-बीस साल का दौरान उक्त विधाओं थैं भौत नुकसान ह~वै। भौत सारि कहानि, लोकगीत अर लोकगाथा बिलुप्त सि ह~वैगिन। जां की क्षति पूर्ति होणु भौत मु”िकिल छ। उत्तराखण्ड बणणां बाद सोचि छौ कि यखा कि सरकार लोक की थाती थैं समळणां खातिर कुछ जतन कारलि पण जो बि सरकार एै तौंन अपणि कुर्सि बचौंण से अगनैं कुछ नि सोचि, कुछ नि कैरि।
गढवळि क सबसे पुरणा लोकगायक अर गीतकार श्री जीत सिंह नेगी जी जो अमणि उमर का बृद्धावस्था म चलणां छन वों क मन म यां बात की भौत टीस छ। नेगी जी लोकगीतौं का वै जमना का गायक छन जबरि गzामोफोन होंदा छाय, साठ को द”ाक म जीत सिंह नेगी जी लोक की थाती की समाळ कैरि पण अमण्या का हाल देखिकि वो बि बुल्दन कि हम्हरू लोक बिटे भौत कुछ हर्चणू छ अर भिण्डया यन्नु छ जो अगर समळे नि जौ त भौळ कुछ नि बचणु। इलै यां की सत समाळ होण चयेणीं छ।
हम्हर घर गौं म मेळा खौळा हम्हरू लोक की थाती का मिलन स्थल होंदा छाया। वख हम अपणि संस्कृति सभ्यता अर लोक से जुडीं बिण्डया बिधाओं से परिचित होंदा छाया। गीत से ल्हेकि नगर, दमौ, निसाण से ल्हेकि ठड~या, चौफळा, बौ अर कै बिधा यन्नि छै जौं को साक्षात दर्”ान यों मेळा खौळाों म ह~वै जांद छया पण जन्नि-जन्नि यि मेळा-खौळ उरेणां बंद सि ह~वैगैंन तन्नि हम्हरि लोक की थाती बि बिसरेणी जांणी छ। गौं म बै”ााख मैना द्वी गति बिटे उरेण वळा मेळों खातिर घर गौं म वसंत पंचमी बिटे गीत लगणा “ाुरू ह~वै जांद छाया। नंगर दमौं की घमघ्याट व्यखुनि दौं बिटे अध रात्यों तक होणौं रैंदु छौ। लोक बाग अपणां खेती पाती को काज काम निपटेकि रात-रात भर सरां ख्यलदा छाया अर गीत लगौंदा छाया। द्वी गति बै”ााख बिटे उरेण वळा मेळा सैरा गढवाळ कुमौ म जेठ का मैन तक चलदा छाया। यों मेळों म चीज बस्त खरीदणु हो चा मेल मिलाप हो यि गौं को लोखों की जिन्दगी का अहम हिस्सा होंदा छाया। परदे”ा रैंण वळ लोग अपणां-अपणां गौं म मेळाों का खातिर जरूर पौंछदा छया। सैसर वळि बेटि अपणां मैत औंदि छै। घर गौं ये टैम परैं खूब रंगत अर उल्यार सि रैंदु छौ। छ~वटा बच्चा सार लग्यां रैंछा छया कि हौरि बगत हो न हो पण मेळाों का बखत परैं वों का वास्ता नै-नै कपडा जरूर औणन। मेळों म खटे, मिठे, पुयांबाज अर चरखि आदि को कनु समौ रैंदु छौ। पण अमणि जनि-जन्नि समाज म पैंसा को प्रचलन ह~वै, रोटी-रोजगार का खातिर जन्नि मनखि अपणं घर गौं से दूर ह~वै तन्नि यखा रीति रिवाज अर मेळा खौंलों का दगड~या-दगड़ि यखा की लोक संस्कृति को बि हृास सि ह~वै गे जो कि भौत सोचनीय बात छ।
अमणि जर~र्वत यां कि छ कि हमुथैं अपणि लोक संस्कृति बचौण चयेणी छ। यांका वास्ता बिसरिगयां मेळा-खौंळौं थैं फिर से उरये जौ, यां का वास्ता कुछ लोग प्रयास बि कनां छन। पिछला मैना मई म संगळाकोटी म कोटे”वर महादेव का थान म अर सीकू गौं पौडी++ म छुयाळ समाचार पत्र द्वारा तीन-चार दिन कु मेळा अर विभिन्न विधाओं की प्रतियोगिता, गढ़वळि कवि सम्मेलन उरये गै। यखौ मेळा अर लोखों की रूचि देखिकि लग कि औंण वळा समय म बिसर्रदी परंपरा अर लोक की थाती कि समाळ ह~वैली। यै मेळा म लोकगीत, ठड~या, झुमैलो अर बौ आदि लोक विधाओं की गzाम स्तर परैं करे गे प्रतियोगिता खुब भल्लि छै अर नै पीढि का वास्ता एक संगzहणीय प्रयास छौ। हम्हरा ल्यख्वार, गितार अर लोक का प्रति सजग मनख्यों थैं अमणि अपणि लोक की थाती कि समाळ करण पोडलि जां से औंण वळि पीढि थैं हम अपण रीति-रिवाज, कला, संस्कृति अर लोकगीत, लोक कथा अर लोकोक्तियों थैं अगनै सर~यां सकां। लोक का प्रति सजग रैंण परैं हि हर्चदु लोक की विधाओं थैं बचये सकेंद जो कि अमणि भौज जरूरी छ। उम्मीद कर्दां कि हम अपणु लोक थैं समाळि कि रखला अर औंण वळि पीढि यों विधाओं से न सिर्फ परिचित होलि बल्कि वों थैं अपणां लोक परैं गर्व बि होलु।। 
दिने”ा ध्यानी

Tuesday, June 11, 2013

गढवाली का युवा कवि, कथाकार दिनेश ध्यानी जी दगड भीष्म कुकरेती कीं लिखाभेंट.  


भीष्म कुकरेती: अपण कथगा कविता लेखी आलीन अर कथगा छपी गेन पर जरा प्रकाश डाळी.
दिनेश ध्यानी. नमस्कार कुकरेती जी. कना चा आप? मेरु लेखन का फिल्ड मा
अज्यों तक मीन लगभग द्वो सो गढ़वाली कविता लिखी यालिन. एक कविता संग्रह "गंगा जी का जो छन भैजी" का नौ से छपे गे अभी.  गर्हाली कहानी संग्रह  गंगा की बेटी छपना खुनी ज्यों चा. अर् एक कविता संग्रह अज्यों तैयार चा. मी थाई लोक जीवन अर् समस्याओं से आधारित कविता लेखुनु अच्छू लगदा. हिंदी की के कविता संग्रह मुझे मात मारो, छापना का वास्ता तयार च अर् एक लघु उपन्याश बांजाधार भी छापना का वास्ता तयार चा, हिंदी की कई कहानी अर् छुट पुट कविता कई लेखिन. अर् अज्यों भी जब मौका मिलदा कुछ ना कुछ लेखनु रैंदु.

भीष्म कुकरेती; कथाओं बारा मा बि जरा बथाव्दी की कै तरं क कथा लिखदआ.
दिनेश ध्यानी. मेरु एक कविता संग्रह गढ़वाली भाषा की छापना का वास्ता जायीं च. मी कहानी भी लोक जीवन अर् परिवेश की सची घटनाओं से सम्बंधित लेखादु. यो मेरी पैलू कहानी संग्रह चा. अज्यों तक जो भी लिखी खासकर कहानी अर् उपन्यास आदि वो सभी अपरू परिवेश अर् लोक जीवन से ही लियोन चा. कहानी हम्रू भुग्त्यों याँ जन्यों, सम्ज्यों जीवन की या सुन्यों कथा कहानियों माँ बीटी की ही अधिक होंद. बनावट अर् खलिश कल्पना से खी भी कहानी या रचनाओं की आत्मा मोरी जानद. इले हकीकत से वास्ता हो ता अचू रैंदु. यो मेरु मनाणु चा.

भीष्म कुकरेती : आप कविता क्षेत्र मा किलै आएं.
दिनेश ध्यानी. जब मिल पैली कुछ लिखी ता वा कविता ही छाई. १९८४ की बात चा, मिन वी को इम्तन दीयों छो. बस वाबरी एक कविता लिखी. असल में व गज़ल लिखी छाई. बस लेखन को शौक राई अर् लेखन बैठू जो भी मन माँ बिचार आयें. ये फिल्ड माँ किले आऊं मी थें भी पता नि चा.
भीष्म कुकरेती: आपकी कविता पर कौं कौं कवियुं प्रभाव च ?
दिनेश ध्यानी. प्रभाव? मीथे ता अपरू ही प्रभाव देखेनु च बाकि पाठक ब्वालाला मी कुछु नि बोली सकदु ये बार मा.
भीष्म कुकरेती : आपका लेखन मा भौतिक वातावरण याने लिखनो टेबल, खुर्सी, पेन, इकुलास, आदि को कथगा महत्व च ?
दिनेश ध्यानी.. जथागा दाल का डगरी भात अर् खूटों का दगडी हाथ. यानी की सौब कुछ चयेंदु. रात सिन्दाओ भी अपरा खल्ला का समणी कागज, पेन अर् मोबाइल रख्दु... रात अचन्चक कभी बर्र नींद खुली जानद अर् तबरी अगर बिचार टीपी दे था भलू निथर गई ता फिर हाथ नि अओनु. एक लहर चा लेख्न भी, वे खुनी बातावरण भी चयेंदु अर् माहोल भी, बाकि बिचार च कबर आजो, कनु आजो कुछ नि बोल्येंदु. परीवश कु यकुलाश नि भी हो ता बिचारों कु यकुलाश जरुई च... तभी आप अच्छी कल्पना अर् रचना करी सक्दो.
भीष्म कुकरेती: आप पेन से लिख्दान या पेन्सिल से या कम्पुटर मा ? कन टाइप का कागज़ आप तैं सूट करदन मतबल कनु कागज आप तैं कविता
लिखण मा माफिक ओंदन?
 दिनेश ध्यानी. मी कागज में लेख्दु अर् टाइप भी करदू कंप्यूटर फरै.
भीष्म कुकरेती: जब आप अपण डेस्क या टेबले से दूर रौंदा अर क्वी विषय दिमाग मा ऐ जाओ त क्या आप क्वी नॉट बुक दगड मा रखदां ?
दिनेश ध्यानी. याँ का वास्ता हमेशा अपर दगडी कागज अर् कलम रख्दु. रात सिन्दोव भी सिर्वान का समानी कागज कमाल रैन्द्द.
भीष्म कुकरेती: माना की कैबरी आप का दिमाग मा क्वी खास विचार ऐ जवान अर वै बगत आप उन विचारूं तैं लेखी नि सकद्वां त आप पर क्या बितदी ? अर फिर क्या करदा ?
दिनेश ध्यानी. वे बगत मी कोसिस करदू की कुछ लिखू च कुछ भी हो पर अगर आपन बिचार कागज मा उकरी दिन ता ठेक नथार समुद्र की लहर की तारों कुछ नि रंदु. बिचार ऐया अर् अगर नि संभाली ता गई.
भीष्म कुकरेती: आप अपण कविता तैं कथगा दें रिवीज करदां ?
दिनेश ध्यानी. जानू टाइम मिलदा उठ्गा दफा देख्दु अर् हर बार कुछ ना कुछ देखि जानद.
भीष्म कुकरेती: क्या कबि आपन कविता वर्कशॉप क बारा मा बि स्वाच? नई छिंवाळ तैं गढवाळी कविता गढ़णो को प्रासिक्ष्ण बारा मा क्या हूण चएंद /
आपन कविता गढ़णो बान क्वी औपचारिक (formal ) प्रशिक्षण ल़े च ?
दिनेश ध्यानी. कविता या लेख लिखना का वास्ता क्वी ट्रेनिंग नि ले. बस मन मा बिचार आओना रैन अर् लेखनु रों.
भीष्म कुकरेती: हिंदी साहित्यिक आलोचना से आप की कवितौं या कवित्व पर क्या प्रभौ च . क्वी उदहारण ?
दिनेश ध्यानी. देश अर् काल को प्रभाव ता होन्दु चा. बाकी मेरी रचनों का बारम ता पाठक ही बता सक्दिन.
भीष्म कुकरेती: आप का कवित्व जीवन मा रचनात्मक सुखो बि आई होलो त वै रचनात्मक सुखा तैं ख़तम करणों आपन क्या कौर ?
दिनेश ध्यानी. मन की बात चा, कभी कुछ कभी कुछ चल्नु रेंदा, कोशिश करदू की हर भाव माँ कुछ ना कुछ लेखनु राउं. कभी कभी लगी की केखुनी लेखन, पर फिरभी यो हमारू धर्म च अर् जब भगवान ला कुछ बिचार दीयों चा ता वे थें कागज माँ लेखनु रैंदु.
भीष्म कुकरेती: कविता घड़याण मा, गंठयाण मा , रिवाइज करण मा इकुलास की जरुरत आप तैं कथगा हूंद ?
दिनेश ध्यानी. इकुलास की जरुरत होंदी च पर बिचार जबर आई तबरी लिखी दे, कोसिस करी की कागज अर् कलम हमेशा डागदरी रो, फिर चुप से कागज मा मन का बिचार उतारी दे.पर कभी कभी लगदु च जबर आप कुछ लेखन चा, कुछ सोचना चा ता वेबरि कैन कुछ बोली दे, या कुछ करिदे तब कुछ परेशानी होंदी च, बिचारों को तारतम्य टूटी जा ता भुरु लगदु.
भीष्म कुकरेती: इकुलास मा जाण या इकुलासी मनोगति से आपक पारिवारिक जीवन या सामाजिक जीवन पर क्या फ़रक पोडद ?
इकुलासी मनोगति से आपक काम (कार्यालय ) पर कथगा फ़रक पोडद .
दिनेश ध्यानी. फरक ता जरुर पोडद, कबरी जरुरी काम या टाइम घर वोलों थें नि दे सकदु. तबरी भुरु लगदा. ऑफिस कु कम कभी नि रोक्दु. मेरु मन्नू चा की हमारू काम ही हमारू भगवन च. ये वास्ता अपरू काम थाई कभी नि रोक्दु या कभी कभी बिचार ओंद ता वेबरि कागज माँ उतारी देन्दु, बादम टाइम मिली ता पूरी रचना लिखी दे. हाँ पारिवारिक अर् सामाजिक जीवन जरुर प्रभावित होंद. सबसे भिन्डी परिवार थें परेशानी होंदी...

भीष्म कुकरेती: कबि इन हूंद आप एक कविता क बान क्वी पंगती लिख्दां पं फिर वो पंगती वीं कविता मा प्रयोग नि
करदा त फिर वूं पंगत्यूं क्या कर्द्वां ?
दिनेश ध्यानी. मेरी पंक्ति जो भी होंदी ना शुरू की वों से ही मी अग्नि चल्दु, मेरी रचना माँ कभी भी इनु नि हवे की पैली लिखी पंक्ति थें छोड़ी का नई रचना लिखू. कोशिश करदू की जो मन माँ बिचार आई वे से अग्ने बढे जा. फिर भी कभी कभी एक रचना की द्वि लेन्यों बीटी द्वि अलग अलग रचना निकली जनिदी, खासकर कविता का मामला माँ एनो होन्दा.
भीष्म कुकरेती: जब कबि आप सीण इ वाळ हवेल्या या सियाँ रैल्या अर चट चटाक से क्वी कविता लैन/विषय आदि मन मा ऐ जाओ त क्या करदवां ?
दिनेश ध्यानी. मेरी कलम अर् कागज हमेशा मी दगरी रैद, रात, बेरात जबरी भी बिचार औ, वे थें उतारी देन्दु, बिचार कबरी ऐ जाऊ कुछ बोली नि सकदा.
भीष्म कुकरेती: आप को को शब्दकोश अपण दगड रख्दां ?
दिनेश ध्यानी. ना कभी मिन कई सब्द्कोश की मदद ने ले.  मेरु मन मा जो सबद आगे वे से ही अगने चल्दु.
:भीष्म कुकरेती हिंदी आलोचना तैं क्या बराबर बांचणा रौंदवां ?
दिनेश ध्यानी. ना. कभी कबर टाइम मिली ता बांची देन्दु.
भीष्म कुकरेती: गढवाळी समालोचना से बि आपको कवित्व पर फ़रक पोडद ?
दिनेश ध्यानी. ह्वे सकदा, मिन बोली ना की देश अर् काल कु प्रभाव से कवी भी लिखवार कब तक बाचु रोलु? बाकि पाठक बताई सक्दिन. मिन क्या बोलण...?
भीष्म कुकरेती : भारत मा गैर हिंदी भाषाओं वर्तमान काव्य की जानकारी बान आप क्या करदवां ? या, आप यां से बेफिक्र रौंदवां
दिनेश ध्यानी. फिकर ता के बी चीज अर् कामा की कभी नि करदू. जो ह्वेजो भलु, जो नि ह्वे वो करणकी कोशिश करदू...कर्म कनु हमारू फराज च. खासकर अपनी बोली भाषा का वास्ता कुछ ह्वे सकू ता वे थें अपरू फर्ज मनिकी चल्दु.
भीष्म कुकरेती : अंग्रेजी मा वर्तमान काव्य की जानकारी बान क्या करदवां आप?
दिनेश ध्यानी. कुछ खास नि जब भी मौका मिली ता वे कु साहित्य पढ़ी देनु.
भीष्म कुकरेती: भैर देसूं गैर अंगरेजी क वर्तमान साहित्य की जानकारी क बान क्या करदवां ?
दिनेश ध्यानी. छुटपुट जब लगा लगी तब कुछ पढ़ी दे....बस खास कुछ नि कद्रू.
भीष्म कुकरेती : आप हिंदी, अंग्रेजी, या हौरी भाषाओं क क्वा क्वा कविता , कथा तैं गढवाली मा अनुवाद करण चैल्या ?
दिनेश ध्यानी. हां. अगर मौका मिली ता जरुर कनु चंदू. खासकर गढ़वाली की रचनों कु अनुवाद होर्यों की भाषा माँ होलू ता हमारी भाषा समृद्ध होली...
भीष्म कुकरेती: आपन बचपन मा को को वाद्य यंत्र बजैन ?

दिनेश ध्यानी. बालपन मा दुन्गों बजे की सारयाँ बजा बाजा सिकी, मेला खौलों म हुडुकी, डोंर बजे, ब्यो बारातों अर् गमत का बाना हारमोनियम, बसूली, तबला, अर् नगर दमो बजे. बचपन मा अपर गांव माँ ब्यों बरत्यों माँ रामलीला खेली तबरी संगीत अर् साज की सोहबत मिली. पण रोटी का चक्कर माँ सभी कुछ छुटी गे. अब ता खलिश लालसा रेगे. मन करदू की कुछ माहोल मिलु ता कुछ खुद बिसरों पर अब ता रोटी की राकरोड़ अर् वाँ का बाद लेखन से फुर्सत नि मिलदी.
धन्यबाद कुकरेती जी. आप जाना विद्वत मन्ख्यों का दगडी बात कनु भलु लगी. आप गढ़वाली साहित्य अर लिख्वारों का वास्ता खार्यों काम कना छा. समाज अर् कलमकार सदन्नी आपका आभारी राला.






Monday, June 10, 2013

अक्ल नि होंदी
ता एक बात छै
जामा नि होंदी
ता एक बात छै.
पण अक्ल भी च
चेतना भी चा
फिर भी अवनि!
तुमकु चुक्कापट........
किले प्वडी चा..?
सब्यों का बान
रंदा परेशान
दिन रात काम
न चेतना, न जामा
कब्बि करणु बि चा
तुमन  आराम?
भिंडी काम
भलु नि होन्दु
अफ्फु थें भुलाणु
भलु नि होन्दु
लोग समझदिन
हैंक थें बेवकूफ
अपरू सरेल

दुखाणु भलु नि होन्दु....ध्यानी...४/४/१३ 

Saturday, May 12, 2012



छिटगा

1
जब तक समाज म
जातिवाद, क्षेत्रवाद
अर छ~वटु बड़ को भेद रैंण
तब तलक भल्लु कनम होण?
2
घौर म बण्यां फुग्यानात
नी खांद हम तौंकु हत्थौं भात
दारू पेंदा सब्य संगति
चलणों रैंद विद~ भै-भयाता।
3
गंगा राजनीति ह~वैगि
नारों की सौगात ह~वैगि
गंगा ल बचण कन्क्वै
जब गंगा को मैत ही बांज पोड़िगे?
4
ड़ाली,बूटी जंगळों कू नाश
खरड़ि ढंय~यां, गदनि उदास
मन्खी न मौसम, कुयेड़ी न पाणी
यनम गंगा कनक्वै बचाण?
5
गंगा अमणि गंदळि ह~वैगे
गौमुख बिटि ही काजौळ ह~वैगे
आचमन कनकु साफ पाणि नीच
गंगा नौ क नारा लगणां छन
बस कागजों म करोड़ों खर्चेगे।
6
वरूणावत बिटि अयों रैबार
ह~वै जाव सब्बि खबरदार
निकारा ड़ाळि बूट~यों कु नाश
निथर फिर हूंण विनाश।
7
गदन्यों रोकि की ड़ाम बणणां छन
घर-गौं उज्याड़िक विकास कनां छन
नेता अर ठ~यकदार कनां छन मौज
जनता तिल-तिल कै म्वनीं रोज।
8

गढ़वळि ल भाषा कनक्वें बणण
जब तक तुमन उदास रैंण
गढ़वळि ब्वन म शरम
नि पाळा भाषा को भरम।
ग्वरख्याणी तैं पैड़ि ल्या
गढ़वळि-कुमौंउनीं कु क्या कन
बिना मान सम्मान कु
यों ल कनम पनफण?





हमरू इतिहास

हमरू इतिहास
वों न याद किलै रखण?
हमुथैं वांेल
महान कनम जि ब्वलण?
हमुन यन्नु क्या काम कैरि
जै से हमरू नाम हूण?
धरती बंजे की
जंगलु कु नाश
गदन्नि, पंदेरा
प्वड़यां छन बांजा।
म्नख्यों म नीच
अमणि मनख्यात
भै-भयों म
नि रै भै भयात।
रीति-नीत
अर संस्कृति सभ्यता थैं
मारियालि लात।



द~यू-धुपणु

बरसों बिटे
हम गौ बंद
ह~वैकि
कनां छां
द~यू अर धुपणु।
मनाणां छां
अपणां
द~यो-द्यबतों थैं
पर वों फर
न अणक न मणक।
वों थैं न
घूण खांद
न उप्पन
वो त बस
ड़डणा अर
टटक नाथ।
जथग हम
हाथ ज्वड़ै कनां
उथगै वो
हमुथै
आंख दिखाणा।
साल दर साल
कनां छां हम
पूजा अर
खद~यडु
गड़णां छां
गड़णां छां
उच्यणु।
द्यबतों कु बि
यांम क्वी दोष
नीचा जब
ड़ांगर हि
बाट से अबट~ट
अर केर से बे लैन
ह~वै कि
जग्ग-बग्ग हूणां छन
त द्यबतों ल बि
बयाळ त कन्नि ही चा।
वों क ठौ भौ फरैं
जब एक जुट~ट नि होणां
सब्बि बस
निपटाणां खातिर
वोंकि पूजा कन्ना
त द्यबतों ल
किलै दीण परचु
किलै कन्न
हमु फरैं
ओट।
जब हम पौंछाणा
छां वोंकु
मान-सम्मान
थैं चोट।
बिना पियां
जागर नि लगणां
बिना पियां
मंत्र नि पढ़ेणां
बिना पियां तरपण
नि दियेणां
त फिर हमर
उप्पर कापान
कन्क्वै खड़ हुणिन?
द्यवता त
भौ अर विश्वास
गौबंद अर धुपणु
मंगदिन पर
वों जब क्वी कैर जाण
ठौ अर भौ
दिखै जाण।
सुदि~द
द~यू अर धुपणु कैकि
बेमन ल
यीं पूजा ल
सुफल कनक्वै हूण?

Friday, November 11, 2011

मी बिजरि रै जैल्या क्या?
मैं कू त इथगा बि भिड़ि चा तुम बचेग्यां।
भाग चा म्यरू तुम दगड़ि कुछ दिन बितै छा।
झणि क्या ह~वै या बात मी समझ आई
तुम बिजरि मेरि भूख निंद हरचि ग्याई।
सोचु छौ इन्नि जिन्दगी का दिन कटेला
क्या जणुणु छौ द्वी दिनों की हैंसि चा।
तुम बिजरि अब जिन्दगी बणवास चा
तुम बतै जा कनक्वै  मिन अब कटणु चा?
बित्यां दिनौ की माळा जब मी गठ~यादू
झट तुमरि ही मुखड़ि मेरू समणि आंद।
सोचदां स्वचदा जबरि मीं याद औंद
झणि किलै आंख्यों कु पाणी निगरि जांद।
जणदु छौं मीम कुछ यन्नु खास नी चा
जै से क्वी मेरी तरपां झट खिच्ये कि आ।
पण तुमन झणि क्य कैरै समझम नि आई
मेरि सुधबुध जाम सब्बि कुछ हैरि द~याई।
तुम बथा मिन्न तुम बिजरि कन्वकै कि रैण?
अवनि मेरि तुम मी बिजरि रै जैल्या क्या?...... 2 नवम्बर, 2011.